किसी भी अच्छे काम की शुरुआत करने से पहले कई चीजों को देखा और परखा जाता है। उन्हीं में एक है भद्रा काल, जिसे अशुभ माना जाता है। इस दौरान कोई भी मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। पुराणों के अनुसार, भद्रा सूर्यदेव की पुत्री और शनि महाराज की बहन है। भद्रा के स्वभाव को देख और उसे नियंत्रित करने के लिए भगवान ब्रह्मा ने उन्हें पंचांग के एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया था।
पंचांग के अनुसार, जब चंद्रमा किसी विशेष नक्षत्र और राशि में रहता है, तब भद्रा का काल बनता है। इसे अशुभ माना जाता है और इस समय किए गए शुभ कार्यों में बाधा आने की आशंका रहती है।
भद्रा का स्वरूप-
- मान्यता है कि भद्रा एक देवी हैं जिनका शरीर बहुत विशाल है।
- कहा जाता है कि जब भद्रा का मुख पृथ्वी लोक की ओर होता है, तब यह काल अशुभ और बाधादायक माना जाता है।
- भद्रा के तीन स्थान माने गए हैं- स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल। स्वर्ग और पाताल में भद्रा शुभ मानी जाती है। जब भद्रा पृथ्वी लोक में होती है, तो यह अशुभ मानी जाती है।
शुभ-अशुभ कार्यों पर प्रभाव-
अशुभ कार्य-
विवाह, गृह प्रवेश, नया व्यवसाय, धार्मिक अनुष्ठान, यात्रा या कोई बड़ा समझौता भद्रा काल में नहीं करना चाहिए। मान्यता है कि इस समय शुरू किए गए कार्यों में रुकावटें आती हैं और सफलता देर से मिलती है।
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शुभ कार्य-
युद्ध, विवाद निपटारा, ऋण वसूली, गुप्त कार्य या दंड देने जैसे कार्य भद्रा में सफल माने जाते हैं। इसी कारण इसे कभी-कभी क्रूर करण भी कहा जाता है।
ज्योतिष शास्त्र में इसे देखकर ही किसी भी महत्वपूर्ण कार्य का मुहूर्त निकाला जाता है। अगर किसी नक्षत्र पर भद्रा का साया हो, तो अन्य दिन का चुनाव करके अपना काम करना ही श्रेष्ठ होता है।
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